बुधवार, जून 27, 2012

सरस्वती नदी गुप्त क्यों हुई ?


सरस्वती नदी गुप्त क्यों हुई ?
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सरस्वती शोध संस्थान के अध्यक्ष दर्शनलाल जैन के मुताबिक सैटेलाइट चित्रों से प्राचीन सरस्वती नदी के ज़मीन के नीचे जलप्रवाह की जानकारी मिलती है। साथ ही यह भी पता चलता है कि यह सिंधु नदी से भी ज्यादा बड़ी और तीव्रगामी थी। चेन्नई स्थित सरस्वती सिंधु शोध संस्थान के अधिकारियों के मुताबिक इस दिशा में पहली परियोजना हरियाणा के यमुनानगर जिले में सरस्वती के उद्गम माने जाने वाले आदिबद्री से पिहोवा तक उस प्राचीन धारा के मार्ग की खोज है। दूसरी परियोजना का संबंध भाखड़ा की मुख्य नहर के जल को पिहोवा तक पहुंचाना है। इसके लिए कैलाश शिखर पर स्थित मान सरोवर से आने वाली सतलुज जलधारा का इस्तेमाल किया जाएगा। सर्वे ऑफ इंडिया के मानचित्रों में आदिबद्री से पिहोवा तक के नदी मार्ग को सरस्वती मार्ग दर्शाया गया है। तीसरी परियोजना सरस्वती नदी के प्राचीन जलमार्ग को खोलने और भू-जल स्त्रोतों का पता लगाना है।तेल एवं प्राकृतिक गैस निगम (ओएनजीसी ) राजस्थान के थार रेगिस्तान में सरस्वती नदी की खोज का काम कर रहा है। निगम के अधिकारियों का कहना है कि सरस्वती की खोज के लिए पहले भी कई संस्थाओं ने काम किया है और कई स्थानों पर खुदाई भी की गई है, लेकिन 250 मीटर से ज्यादा गहरी खुदाई नहीं की गई थी। निगम जलमार्ग की खोज के लिए कम से कम एक हजार मीटर तक खुदाई करने पर जोर दे रहा है। दुनिया के अन्य हिस्सों में रेगिस्तान में एक हजार मीटर से भी ज्यादा नीचे स्वच्छ जल के स्त्रोत मिले हैं

पूर्व केन्द्रीय संस्कृति और पर्यटन मंत्री जगमोहन ने राजग सरकार के कार्यकाल में सरस्वती नदी के प्रवाह मार्ग की खुदाई और सिंधु-सरस्वती सभ्यता के अनुसंधान की एक महत्वपूर्ण परियोजना शुरु की थी। लेकिन संप्रग सरकार के सत्ता में आने के बाद उसे "भाजपा का गुप्त एजेंडा" कहकर रोक दिया गया।आज तक किसी बड़ी नदी के अचानक विलुप्त होने के बारे में नहीं सूना सिवाय सरस्वती नदी के . इसके पीछे अवश्य ही कोई बड़ा कारण रहा होगा . कहते है इसके विलुप्त होने से ही राजस्थान मरुस्थल बना .जैसलमेर के अत्यंत रेगिस्तानी क्षेत्र में सरस्वती नदी का छूटा प्रवाह क्षेत्र खोजा गया है। रेगिस्तान के सुदूर पश्चिमी भाग में जलोढ़ मिट्टी पाए जाने के पीछे सरस्वती नदी का योगदान है और रेगिस्तान के पश्चिमी भाग में सतह के नीचे का पानी सरस्वती के पुराने प्रवाह के कारण है। ईसा पूर्व 4-5 सहस्राब्दि में उत्तर-पश्चिमी राजस्थान सरस्वती के कारण कहीं ज्यादा हरा-भरा था।11 मई 1998 को परमाणु परीक्षण के बाद भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र ने विस्फोटों का प्रभाव मापने के लिए कई परीक्षण उस क्षेत्र के जल में किए थे। ये परीक्षण बताते थे कि इस क्षेत्र में पानी 8 हजार से 14 हजार साल पुराना और पीने योग्य था। यह हिमालय के ग्लेशियरों से आया था और बारिश की कमी के बावजूद उत्तर में कहीं से इसमें जल आता रहता था। ये खोजें "लुप्त" सरस्वती के बारे में उपरोक्त मतों को बल प्रदान करती हैं। इससे अलग, बहुउद्देशीय अध्ययन के अंतर्गत केंद्रीय भूमि जल आयोग ने सूखी नदी सतह के साथ-साथ कई कुएं खोदे। खोदे गए 24 कुओं में से 23 में पीने योग्य पानी मिला।
सरस्वती एक विशाल नदी थी। पहाड़ों को तोड़ती हुई निकलती थी और मैदानों से होती हुई समुद्र में जाकर विलीन हो जाती थी। इसका वर्णन ऋग्वेद में बार-बार आता है। कई मंडलों में इसका वर्णन है। ऋग्वेद वैदिक काल में इसमें हमेशा जल रहता था। सरस्वती आज की गंगा की तरह उस समय की विशाल नदियों में से एक थी। उत्तर वैदिक काल और महाभारत काल में यह नदी बहुत कुछ सूख चुकी थी। ऋषि यहां तक कहते हैं कि अब तो उसमें मछली भी जीवित नहीं रह सकती। तब सरस्वती नदी में पानी बहुत कम था। लेकिन बरसात के मौसम में इसमें पानी आ जाता था। तो ऋग्वैदिक काल, उत्तर वैदिक काल और महाभारत काल में प्रमाण मिलते हैं कि एक नदी, जो सदानीरा थी, धीरे-धीरे विलुप्त हो गई।
महाभारत में मिले वर्णन के अनुसार सरस्वती हरियाणा में यमुनानगर से थोड़ा ऊपर और शिवालिक पहाड़ियों से थोड़ा सा नीचे आदि बद्री नामक स्थान से निकलती थी। आज भी लोग इस स्थान को तीर्थस्थल के रूप में मानते हैं और वहां जाते हैं। किन्तु आज आदि बद्री नामक स्थान से बहने वाली नदी बहुत दूर तक नहीं जाती एक पतली धारा की तरह जगह-जगह दिखाई देने वाली इस नदी को लोग सरस्वती कह देते हैं। वैदिक और महाभारत कालीन वर्णन के अनुसार इसी नदी के किनारे ब्रह्मावर्त था, कुरुक्षेत्र था, लेकिन आज वहां जलाशय हैं। अब प्रश्न उठता है कि ये जलाशय क्या हैं, क्यों हैं? उन जलाशयों में भी पानी नहीं है। इस परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो किसी नदी के सूखने की प्रक्रिया एक दिन में तो होती नहीं, यह कोई घटना नहीं एक प्रक्रिया है, जिसमें सैकड़ों वर्ष लगते हैं। जब नदी सूखती है तो जहां-जहां पानी गहरा होता है, वहां-वहां तालाब या झीलें रह जाती हैं। ये तालाब और झीलें अर्ध्दचन्द्राकार शक्ल में पायी जाती हैं। आज भी कुरुक्षेत्र में ब्रह्मसरोवर या पेहवा में इस प्रकार के अर्ध्दचन्द्राकार सरोवर देखने को मिलते हैं, लेकिन ये भी सूख गए हैं। लेकिन ये सरोवर प्रमाण हैं कि उस स्थान पर कभी कोई विशाल नदी बहती थी और उसके सूखने के बाद वहां विशाल झीलें बन गयीं। यदि वहां से नदी नहीं बहती थी तो इतनी बड़ी झीलें वहां कैसे होतीं? इन झीलों की स्थिति यही दर्शाती है कि किसी समय यहां विशाल नदी बहती थी।
तमाम वैज्ञानिक और भूगर्भीय खोजों से पता चला है कि किसी समय इस क्षेत्र में भीषण भूकम्प आए, जिसके कारण जमीन के नीचे के पहाड़ ऊपर उठ गए और सरस्वती नदी का जल पीछे की ओर चला गया। वैदिक काल में एक और नदी का जिक्र आता है, वह नदी थी दृषद्वती। यह सरस्वती की, सहायक नदी थी। यह भी हरियाणा से होकर बहती थी। कालांतर में जब भीषण भूकम्प आए और हरियाणा तथा राजस्थान की धरती के नीचे पहाड़ ऊपर उठे, तो नदियों के बहाव की दिशा बदल गई। और दृषद्वती नदी, जो सरस्वती नदी की सहायक नदी थी, उत्तर और पूर्व की ओर बहने लगी। इसी दृषद्वती को अब यमुना कहा जाता है, इसका इतिहास 4,000 वर्ष पूर्व माना जाता है। यमुना पहले चम्बल की सहायक नदी थी। बहुत बाद में यह इलाहाबाद में गंगा से जाकर मिली। यही वह काल था जब सरस्वती का जल भी यमुना में मिल गया। ऋग्वेद काल में सरस्वती समुद्र में गिरती थी। प्रयाग में सरस्वती कभी नहीं पहुंची। भूचाल आने के कारण जब जमीन ऊपर उठी तो सरस्वती का पानी यमुना में गिर गया। इसलिए यमुना में यमुना के साथ सरस्वती का जल भी प्रवाहित होने लगा। सिर्फ इसीलिए प्रयाग में तीन नदियों का संगम माना गया जबकि यथार्थ में वहां तीन नदियों का संगम नहीं है। वहां केवल दो नदियां हैं। सरस्वती कभी भी इलाहाबाद तक नहीं पहुंची।
इससे भी पौराणिक मान्यता यही जुड़ी है कि जब सरस्वती के रास्ता देने से इंकार करने पर भीम ने गुस्से से जमीन पर अपनी गदा से प्रहार किया तो, नदी पाताल लोक में चली गई।

वैदिक धर्म ग्रन्थों के अनुसार धरती पर नदियों की कहानी सरस्वती से शुरू होती है । सरिताओं में श्रेष्ठ सरस्वती सर्वप्रथम पुष्कर में ब्रह्‍म सरोवर से प्रकट हुई, पितामहस्य सरसः प्रवृतासि- सरस्वती । सरोवर से प्रकट होने के कारण महात्माओं ने प्रकृति के इस रूप को सरस्वती कहा । प्रजापति ब्रह्‍मा ने लोक कल्याण हेतु पुष्कर में प्रथम यज्ञ करते हुए सरस्वती का आवाहन किया था, “पितामहेन यजता आह्‍वता पुष्करेषु वै” । भगवान्‌ ब्रह्‍मा जी के आवाहन करने पर सरस्वती “सुप्रभा” नाम से प्रकट हुईं । तपोबल संपन्‍न महात्माओं के द्वारा भी विभिन्‍न अवसरों पर सरस्वती का आवाहन किया गया । नैमिषारण्य में यज्ञ करते हुए मुनि-महात्माओं के द्वारा आवाहन करने पर सरस्वती “कांचनाक्षी” नाम से प्रकट हुईं । ब्रहमर्शि उद्दालक के द्वारा यज्ञ करते हुए आवाहन करने पर सरस्वती “मनोरमा” नाम से प्रकट हुईं । गंगाद्वार में दक्ष प्रजापति के द्वारा आवाहन करने पर “सुरेणु” , कुरूक्षेत्र ब्रह्‍मर्षि वशिष्ठ के द्वारा आवाहन करने पर “ओधवती” नाम से सरस्वती प्रकट हुईं । भगवान ब्रह्‍मा जी के द्वारा हिमालय पर पुनः यज्ञ करते समय सरस्वती का आवाहन करने पर “विमलोदका” नाम से सरस्वती प्रकट हुईं । सरस्वती की सातवीं धारा सिन्धुमाता है|इस तरह सरस्वती सात धाराओं में इस धरती पर उतरीं ।सरस्वती की सात धाराएं जहाँ से एक होकर हिमालय से उस स्थान को “सौगन्धिक वन” कहा गया है । उस सौगन्धिक वन में “प्लक्षस्रवण” नामक तीर्थ है जो सरस्वती तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध है ।
उतथ्य मुनि कीपत्‍नी का वरूण देवता ने अपहरण कर लिया था । जल देवता को नष्ट करने के लिए उन्होंने समुद्र को ही सुखाना प्रारंभ कर दिया । पृथ्वी से एक भयंकर वैद्युतिक ऊर्जा को ग्रहण कर उतथ्य मुनि ने समुद्र को सुखाकर रेगिस्तान कर दिया जहाँ कल-कल करती हुई सरस्वती समुद्र से मिलती थी । अतिक्रोध करते हुए उतथ्यमुनि ने सरस्वती से कहा-तुम इस देश में विलीन होकर धरती के गर्भ में समा जाओ । जल देवता वरूण से भारी बैर के चलते ही सरस्वती भूगर्भित हो गईं । उतथ्य एवं वरूण के कटु संबंधों के कारण अदृश्य हुई सरस्वती एक वृक्ष से रीसने लगी । उतथ्य मुनि के शाप से भूगर्भित होकर सरस्वती “मेरा पृष्टा” हो गई और पर्वतों पर ही बहने लगीं । सरस्वती पश्‍चिम से पूरब की ओर बहती हुई सुदूर पूर्व नैमिषारण्य पहुँची ।अपनी सात धाराओं के साथ सरस्वती कुंज पहुँचने के कारण नैमिषारण्य का वह क्षेत्र “सप्त सारस्वत” कहलाया । सप्त सारस्वत क्षेत्र में मुनियों के एक दल द्वारा पुनः सरस्वती का आवाहन किया गया । मुनियों के आवाहन करने पर सरस्वती अरूणा नाम से प्रकट हुई । अरूणा सरस्वती की आठवीं धारा बनकर धरती पर उतरीं । अरूणा प्रकट होकर कौशिकी ( आज की कोसी नदी )से मिल गई ।
सरस्वती पथ
सरस्वती नदी भारत की वर्तमान नदियों सतलज और साबरमती का संयुक्त रूप थी. सतलज तिब्बत से निकलती है और साबरमती गुजरात के बाद खम्भात की खादी में गिरती है. इस नदी की धारा को पजाब के लुधियाना नगर से उत्तर-पश्चिम में लगभग ६ किलोमीटर दूर स्थित सिधवान नामक स्थान पर मोड़ देकर बिआस नदी में मिला दिया गया जिससे आगे की धारा सूख गयी.

यह धारा आगे चलकर चम्बल नदी की शाखा नदी बनास से पुष्ट होती है और वहीं अरावली पहाड़ियों से अब साबरमती नदी का आरम्भ माना जाता है.मूल धारा तिब्बत से आरम्भ होकर हिमाचल प्रदेश, पंजाब, हरयाणा, राजस्थान और गुजरात होती हुई अरब सागर में खम्भात की खाड़ी में गिरती थी जो अब सतलज तट पर सिधवान तथा साबरमती के वर्तमान उद्गम स्थल के मध्य सूख चुकी है. यह नदी सिधवान से जगराओं होती हुई हरियाणा के सिरसा पहुँचती थी, जहां से यह नोहर, सरदार शहर के पश्चिम से होती हुई श्री डूंगर गढ़ होकर राजस्थान के अलवर जनपद में प्रवेश करती थी. राजस्थान के अलवर जनपद के पराशर आश्रम, जयपुर के पास उत्तर में आम्बेर के पास से होती हुई साम्भर झील पहुँचती थी जहां से अजमेर पूर्व से होती हुई देवगढ होकर साबरमती के उद्गम क्षेत्र में पहुँचती थी. इस क्षेत्र की टोपोग्राफी से इस नदी का मार्ग स्पष्ट हो जाता है जहां की भूमि का तल अभी भी कुछ नीचा है.
पीछे से जल का आगमन बंद होने पर साम्भर क्षेत्र का तल न्यून होने के कारण वहां समुद्र का जल भरा रहने लगा जिससे वहां का भू जल खारा हो गया. कालांतर में इस क्षेत्र का सम्बन्ध समुद्र से कट गया और साम्भर में खारे पानी की झील बन गयी. आज इस क्षेत्र में नमक की खेती होती है, तथा शुद्ध पेय जल कहीं-कहीं ही पाया जाता है.
प्राचीन विश्व की एक बहुत महत्वपूर्ण सभ्यता के विभिन्न पहलुओं को खोजने के लिए अभी काफी काम किए जाने की जरूरत है। हरियाणा में आदि बद्री से लेकर गुजरात में धौलावीरा तक आज विलुप्त सरस्वती घाटी में सैकड़ों स्थलों की खुदाई किए जाने की जरूरत है। यह महत्वपूर्ण है और ये विशेष परियोजना इसी उद्देश्य की पूर्ति करने वाली है।

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